"ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥"

Tuesday, May 8, 2018

*विस्मृत धर्म विचलित कर्म*  (भाग 1)
                    [ साधक :राजशिवम् ]

मिले उम्र भी सहस्त्र इस संसार में,
अगर संस्कार न मिले तो
क्या वो मिलेंगे यहाँ के बाजार में ।
हमारी चिंतन को सत्य असत्य के मझधार से कोई क्या बचा लेगा ? अगर हम स्वयं ही न चाहें तो  भगवान भी हमें नहीं समझा सकता । दुर्योधन को समझाया क्या हुआ ? रावण को समझाया फिर भी युद्ध हुआ । आखिर मृत्यु सत्य है तो पहले इंसान बनने का मन क्यूं न हुआ ?
जीवन के 60 से 70 वर्ष में कितने सारे कर्म करने पड़ते हैं, कुछ तो बचपन में कुछ बुढ़ापे में लेकिन समझ में नहीं आता कि क्यों ? जो भी हम करते है कुछ प्रारब्ध के कारण कुछ संस्कार और माहौल के वशीभूत होकर पर जीवन का रहस्य समझ में नहीं आ पाता जो आना चाहिए। इस जीवन में मैंने अनुभव किया कि समाज के लोगों में अहंकार की प्रबलता फैली हुई है, मान सम्मान में छोटा कद वाला हो या बड़ा कद वाला , बेरोजगार हो या उच्च पद वाला या धनाढ्य सबमें अहंकार अति प्रबल है । इस प्रबलता का फैलाव चहुँ ओर तो नहीं कहूंगा , कारण अति सरल, विन्रम, दयालु, परोपकारी भी मौजूद है तभी तो इस पृथ्वी पर सुगंध से जन मानस आनन्दित होते हैं ।
ये कलि है यहाँ ईश्वर ही सतपथ पर ले जाएंगे लेकिन मन कहता है , ये पथ नीरस और उबाऊ है फिर भी जो इस पर मन को अर्पण कर देते हैं उनको ऐसा आनन्द प्राप्त होता है कि उस आनन्द से जीव शांत और मुक्त हो जाता है । आज सृष्टि में वही योग बन रहें है जो महाभारत के पहले बने थे । भोग लिप्सा में लोग इतने रत हैं कि मानवता कराह उठी है । जातिवाद, पंथवाद के अहंकार में कई भस्मासुर पैदा हो गए हैं । बड़े बड़े पद पर बैठे ये अपने पुण्यों के कारण , सतपथ को त्यागा केवल अपने अहं की एकमात्र पूर्ति के कारण । इससे क्या प्राप्त होगा ?
ज्ञानी का चित्त ध्वनित रहता है कि मैं सबकुछ जान लिया, धनिक का चित्त प्रतिध्वनित रहता है कि मैं जो चाहूं सो कर सकता हूं।
इंसान में जो भी गुण - अवगुण हो पर अगर वो स्वयं के जीवन में ईमानदार है तो ऐसे लोगों को आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति होती है जिससे जीवन और उसके रहस्य को समझ सकें ।
वह अमावस की रात वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर शिव-शक्ति की साधना चल रही थी । पिछले अमावस से आज एक माह की क्रिया से आज मन में कई प्रश्न लिए जल आहुति दे रहा था कि भारी गर्जना से एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुए !
मैंने प्रणाम किया, उनके मुकुट में सात दीप्तिमान प्रकाश हर दिशा को प्रकाशित कर रहा था । उनके उस रूप को देख शरीर में एक बार झुरझुरी सा भय व्याप्त हुआ मै शीघ्र अपने आत्मबल को आज्ञा चक्र में स्थित किया और कह उठा की हे देव आप कौन हैं ? वे बोल उठे वत्स मैं कौन हूँ ये जानना जरूरी नहीं है पर आपके मानस में जो सवाल हैं वे पूछ ले
आज आपके सारे सवाल का उत्तर दे ही दूंगा । उनकी बात सुन मेरे मन प्रफुल्लित होने लगा और मैंने पूछा कि हे देव, मनुष्य शरीर का उद्देश्य क्या है ? इसका उपयोग और प्रारब्ध क्या है ? एवं इसकी अंतिम गति क्या है ?
मेरी बात सुन देव मुस्कुराये , बोल उठे वत्स जीवात्मा अजर अमर है । इसका कभी भी नाश सम्भव नहीं है परंतु कारण विशेष ये विराट पुरुष के अंदर समाहित रहता है जैसे सागर का जल, पवन का झोंका, शब्द स्वर लहरियों की तरंग से भ्रमण करता जीवात्मा कई लोक भ्रमण करता कई प्रारब्ध में बंध जाता है अपने मूल स्वरूप को भूल कर व्याकुल रहता है वो कौन था कौन है और विराट पुरुष से बाहर आकर इतने भ्रमण कर लेता है कि वह अपने आप को भूल जाता है ।
इस विस्मृति में पाप और पुण्य का संचय करता है , परिवार में आता है , माँ-बाप , पति-पत्नी संतान और न जाने कितने रिश्तों में बंध कर कर्म बंधन में उसके प्रारब्ध बन जाता है और जन्म मृत्यु के भंवर में चौरासी लाख योनि में भ्रमण करता है पर इन सारे योनि में उसके प्रारब्ध से भोग भोगते पुण्य संचय के कारण मानव योनि को प्राप्त होता है । मानव योनि मिलने का एक ये भी कारण है कि जीवात्मा अपने मूल स्वरूप को देख ले , स्वयं का साक्षात्कार हो जाये और वह विराट पुरुष जो निर्गुण ब्रह्म निराकार जो साकार जगत का कारण हैं अतः सगुण साकार भी हैं उसको देख ले और इस कई कल्पों के भ्रमण से वह फिर उस परमात्मा में विलीन हो जाए  या उस परमात्मा को देखते हुए और भटके जीवात्मा की सहायता करने हेतु इस जगत में रहकर गुरु, साधु, संत, सिद्ध बन एक जनसमूह का मार्गदर्शन करे । मानव देह में भी कभी कभी सैकड़ो बार पुनः पुनः मानव देह प्राप्त होते रहते हैं । बहुत पाप कर्म अगर करने की प्रवृति हो तो ही नीचे की योनि में चला जाता है। इसी कारण मानव को , सनातन धर्म में ऋषि मुनियों ने गुरु बन कर पंचदेवता सहित अनेक ध्यान ,योग,जप, उपासना का मार्ग प्रदान किया ।
प्रारब्ध पाप कर्मों से विशेष बनते हैं जैसे आपने छल प्रपंच से किसी का धन बलात हड़प लिया, अपने सुख के लिए किसी का शील भंग किया, हत्या की या करवाई, समाज का शोषण किया , अच्छे लोगों को सताने रुलाने और कई प्रकार के पापकर्म के कारण जीवन में इन सारे पापकर्मों के प्रायश्चित के लिए हजारों वर्ष प्रेत योनि, नरकों में यमदूतों से भीषण दंड मिलता है । जिन लोगों को सताया वही अपना बदला लेने के लिए आपके परिवार या आसपास या जीवन में मिलते हैं अगर किसी पुण्य प्रभावों के कारण सद्बुद्धि, देवकृपा, गुरु का सानिध्य मिल जाये तो वह भोग भोगकर जीवात्मा पुण्यकर्मों की ओर अग्रसरित हो जाता है । विशालकाय पुरुष विदा लेते हैं ।
ज्ञानी कौन है ? जो जगत के प्रत्येक रहस्य में एक को भी जान ले । ऐसा न की किसी एक रहस्य को जानकर ये समझ ले की मैं पूर्ण को जान लिया हूँ । पूर्णता को प्राप्त के साथ जिसे सम्पूर्णता का ज्ञान हो जाये वही शिवत्व प्राप्त कर सकता है । सम+पूर्ण यानि जिसकी सम्यक दृष्टि हो, सम दृष्टि हो और यही दृष्टि महात्मा गौतम बुद्ध को प्राप्त थी । बौद्ध धर्म क्या है ? बाहर से जानो तो लगता है ये क्रिया योग की ध्यान साधन है इसमें कोई देव देवी की पूजन नही होती पर इनके धर्मचक्र के अंदर की प्रक्रिया को समझे तो पता चलेगा की हमारा सनातन धर्म कितना जीवंत और सारे धर्मों का सार है।
इनके पंथ में माँ तारा के साथ कई देव शक्तियां स्थापित हैं । कभी कभी विशेष कारण वश सनातन धर्म की बहुत सारी रहस्य छुपाना पड़ता है । पृथ्वी पर जो भी धर्म निकले उनके मूल में अगर देखें तो हर धर्म में सत्यता है । सभी धर्म एक मार्ग है परमात्मा के पास जाने का ,पर मूल यानि जड़ तो सनातन धर्म ही है। एक बात सुनने में आती है कि इस्लाम, ईसाई या हिन्दू लोग में से कुछ कोई पूजा, ध्यान नहीं करते कुछ भी नहीं मानते फिर भी वे  जीवित हैं, बलशाली, धनवान, विद्यावान हैं ,कुछ तो धर्म को गाली भी देते हैं, तो क्या ? वो भी तो सुखी हैं और जो हिन्दू या कोई धर्म का बहुत मानने वाला है परमात्मा, अल्लाह, देवी देवता को तो उन्हें भी कष्ट होता है । इससे क्या मतलब जो प्रारब्ध वश भाग्य में होगा वही तो होगा । व्यक्ति को कर्म करना चाहिए जो होना होगा उसे कोई बदल नही सकता ,
बिल्कुल सत्य है । लेकिन  जिस तरह प्रत्येक व्यक्ति के अंगुली के रेखा चित्र(finger print) एक दूसरे से नहीं मिल सकते उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति का चिंतन एक नहीं हो सकता । बहुत समानता होने के बाद भी कुछ न कुछ भिन्नता होगी और अध्यात्म के अति महत्वपूर्ण सोपान है कि आत्मा को परमात्मा में मिल जाना तो जिस दिन यह रेखा चित्र एक दूसरे से मिल जाये उसी दिन मुक्ति सम्भव है कारण आत्मा आत्मा से मिल क्या कर लेगी जब तक परमात्मा न मिल जाये और वहाँ तक पहुँचने का सबसे प्यारा सबसे सरल सबसे सुंदर मार्ग है वही हमारा सनातन धर्म है।
सनातन सत्य ही जीवन का मूल है केंद्र है । सब घटनाएं नियति है पर हमारा कर्म स्वतंत्र है हमारे जीवन में जो विधि का विधान निश्चित है परंतु हम सत्य में सनातन धर्म, संस्कृति को गहराई और एक निर्दोष दृष्टि से देखे तो अपने पिछले प्रारब्ध को बदल सकते हैं, प्रायश्चित करने की चिंतन दैव कृपा से प्राप्त हो जाये तो हम सनातन के मार्ग पर चल पूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं लेकिन अहंकार बस विवाद, तर्क, एक दूसरे की आलोचना में पूरा जीवन नष्ट हो जाता है ।
जो हम कर्म करते हैं वही कर्म हमारा भाग्य है हमारे जीवन के सारे सुख दुख में परमात्मा कहीं दोषी नहीं जो हमने बोया है वही तो काटना पड़ेगा।हर व्यक्ति की ऊर्जा अलग अलग है और जो ऊर्जा है वे शक्ति रूपणी है जिसके 36 तत्व है जिसमे से मुख्य 5 तत्व से जीव का निर्माण हुआ है । 36 तत्व ही महाप्रेम है,24 तत्व विशुद्ध प्रेम है और 16 तत्व प्रेम है अब इन सोलह तत्व प्राप्त करने के लिए हम पंचतत्वों से युक्त मानव को 11 तत्व पार करना पड़ता है तब हम कभी खंडित नहीं होते । इन 11 तत्व में (1)हमारे दैनिक दैहिक शुद्धकर्म (2)हमारे मानसिक शुद्ध चिंतन(3)ईश्वर के प्रति श्रद्धा(4)सबके प्रति दया और किसी के प्रति ईर्ष्या न होना(5)ध्यान, योग, पूजन(6)कुंडलिनी साधन या मंत्र जप(७)गुरु और ईष्ट में पूर्ण निष्ठा(८)काम का सही उपयोग(9)जगत के आवागमन का कारण, उसपर चिंतन(10)अपने पारिवारिक, सामाजिक कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा से पालन करना, अच्छे रिश्ते का निर्वाह करना(11)खानपान पर ध्यान देना, चरित्रवान होना, अपशब्दों का प्रयोग न करना।
शिव का प्रेम शक्ति, सती के वियोग में जब उनके शव लेकर करुण विलाप करते हुए शिव महाप्रेम में डूबे हुए तभी विष्णु ने को आना पड़ा और राधा जो हरपल विरह में प्रेम में खोई रही उनका प्रेम विशुद्ध है त्याग सर्वस्व अर्पण किया कृष्ण के लिए महाप्रेम में स्थित अपने लिए कुछ नहीं जो है श्री कृष्ण के लिए और कृष्ण राधा को हरपल अपने हृदय में रख जगत का कल्याण करते रहे।
प्रेम की परिभाषा पर कितने मन्तव्य पर प्रेम को महसूस करने के लिए राधा और शिव और हनुमान जैसी हृदय चाहिए । जो सभी जीव के पास परमात्मा ने प्रदान किया है, राधा महाप्रेम में हैं कृष्ण साथ हैं , शिव विशुद्ध प्रेम में हैं, शक्ति साथ हैं । हनुमान प्रेम में है साथ राम हैं सीता हैं ।हनुमान जिसके प्रेम में हैं वह सीताराम महाप्रेम हैं हरि विष्णु ,महाविष्णु ,नारायणी, महालक्ष्मी, भुवनेश्वरी ...हनुमान ने प्रेम किया, भक्ति की, सेवक बने, अहंकार शून्य, सिर्फ प्रेम किया तब विशुद्ध प्रेम प्रकट हुआ । अपना कुछ नहीं जिससे प्रेम किया उसके लिए सर्वस्व अर्पण तब उन्होंने अपने हृदय में महाप्रेम को धारण किया और सारे भेद समाप्त हो गए । शिवांश हनुमान तीन विराट सत्ता में एकाकार हो गए और आज इस जगत में सदेह उपस्थित जीव को हर संकट से मुक्त कर वहाँ तक ले जाते हैं जहाँ तक जाने के लिए हजारों जन्म जीव का आवागमन है।
सभी का जीवन इन तीन रंगों में समाहित होता है तो जीव अष्टपाश से मुक्त होता है।प्रेम विशुद्ध प्रेम के बिना खंडित हो जाता है पर यही प्रेम जब विशुद्ध प्रेम में परिवर्तित हो जाये तो खंडित नही होता।
जो देव शक्तियां हैं वे भी कभी कभी मनुष्य योनि में आ जाती हैं । मानव का जीवन भी इन तीन तत्व की प्राप्ति का मार्ग है पर प्रारब्ध वश लोग भटक कर उलझ जाते हैं और सत्य से दूर चले जाते हैं।इस जगत में इतने मार्ग है सभी सुंदर और सत्य का मार्ग है जिनको जिसपर चलना है वे स्वतंत्र हैं पर इसके लिए विवेकपूर्ण ज्ञान आवश्यक है।
छोटी छोटी बात पर गलतफहमियों में जो प्रेम को ही नष्ट करते हैं वो प्रेम नहीं वह मोहजनित भोग है इसमें सर्वस्व अर्पण कहाँ है ? ये तो एक हल्के झोंके से बिखर जाने वाली मानव पतन की कहानी है।
अक्षर ब्रह्म महाशून्य के इस पार ,स्वर की शक्ति की महायान जिसपर अस्त्र शस्त्र और जिसपर तीन विराट सत्ता प्रेम,विशुद्ध प्रेम, महाप्रेम जिनके आँखों में करुणा, दया, वात्सल्य के साथ अस्त्र शस्त्र लिए वे शक्तियां जो घृणा, अहंकार, लोभ के साथ आँखों से खून की आंसू जो विरह वेदना से मर्माहत एक शांति की चाह।    क्रमशः