"ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥"

Tuesday, July 5, 2011

"माँ तारा":-(ममतामयी माँ सबको तारने वाली)

माँ तारा जब तुम्हें याद करता हूँ तो मन भर जाता है और शब्द निकल नहीं पाते क्या लिखूँ तारा माँ तुम्हारे बारे में।प्रेम की पराकाष्ठा हो तुम,परम प्रेममयी हो और सबको तारने वाली प्यारी माँ हो।वशिष्ठ के द्वारा तुम्हारी साधना करने पर भी जब तुम्हारी सिद्धि नहीं हो पाई तो तुम्ही को किलित करने लगे।तब तुमने आकाशवाणी कर बताया कि चीनाचार विधि से तुम्हारी साधना सफल हो पायेगी तब जाकर वे तारा की सिद्धि कर पाये और साधना स्थान रहा "तारापीठ की वीरभूमी" जहाँ पंचमुंडी आसन पर बैठकर वे साधना कर पाए।द्वापर युग में कृष्ण के आने पर तुम्हारी साधना के कीलन टुट गये और तुम्हारी साधना सबके लिए सुलभ हो पाया।तुम्हारे परम साधक,भक्त तारापीठ के वामाखेपा जी हुए जिन्होने बिना मंत्र,विधि के प्रेम और भक्ति से ही तुम्हें प्राप्त कर लिया।तुम अपने भक्तों का विशेष ख्याल रखती हो कारण तुम बहुत ममतामयी माँ हो।
-:प्रसंग:-
वामा,माँ तारा से झगड़ा करते फिर माँ को मनाते।कभी जब खुद रूठ जाते तो माँ अपने प्यारे बेटे को मनाती।ऐसा संबध है तारा माँ का अपने भक्तों से।एक बार की घटना है तारापीठ के मंदिर में मां का पूजा आरम्भ होने जा ही रहा था कि वामाखेपा मंदिर में पहुँच कर माँ का प्रसाद जो भोग के लिए रखा था खुद खाने लगे।इनके इस कृत्य को देख पंडित,पुजारी इन्हें मारने लगे,बहुत मारा उन्हें और उठाकर बाहर फेंक दिया और कहा कि फिर दिखाई मत देना मंदिर के आसपास।वामा रो रहे थे और बोल रहे थे कि "तुने ही मंदिर मे बुलाया माँ और इतना मार खाया मै।अरे भई तुम लोग मुझे इस तरह मत मारो,माँ ने मुझसे खाने को कहाँ था तभी मैं खा रहा हूँ।" इधर मार पे मार पड़ती रही,वो दर्द से चिल्लाते रहे।पागल मुर्ख कही के,अब देखते है कौन तुमको अब प्रसाद खाने को देता है,एक पुजारी कहता है।एक भक्त से रहा नहीं गया कि बेचारा बोल उठा क्यों मार रहे हो बेचारे को ब्राह्मण का लड़का है,छोड़ दो इसे।मारे नहीं तो क्या करें,इस पागल को अभी पुजा भी नहीं हुई है प्रसाद जुठा कर दिया है।यह शमशान में कुते,सियार के साथ बैठकर जुठन खाने वाला,इसे कह रहे हो क्यों मार रहे हो?ठीक कर रहे है!ये फिर मंदिर के सामने दिखाई दिया तो मार के हाथ पैर तोड़ देंगे।इधर वामाचरण आँखो के आँसू पोंछते पोंछते उठ कर दर्द से कराहते हुए श्मशान आ गये और पेड़ के नीचे लेट कर रोते रहे।नाटो की रानी सो रही थी।उन्होनें स्वप्न देखा कि तारापीठ मे माँ तारा मंदिर छोड़कर रोते रोते जा रही है।जैसे उनको बहुत दुःख हो,माँ के बदन,पीठ से खुन निकल रहा था।जैसे माँ को किसी ने बड़ी बेदर्दी से मारा हो।हाथ जोड़कर रानी खड़ी हो गई और कहने लगी,माँ किस अपराध की सजा दे रही हो मां,हमे क्यों छोड़कर जा रही हो मां।फिर मां ने कहा काफी युग युगान्तर से मैं यहां काफी अच्छी और सुख शान्ति में थी लेकिन अब नहीं हूँ,तुम्हारे मंदिर में मेरे प्रिय पुत्र वामाचरण को कई लोगों ने निर्दयी होकर मारा है।वो प्रहार सब मुझ पर पड़े हैं,वो चोट मुझे लगी है।काफी दर्द हो रहा है,इसी वजह से मै और यहाँ नहीं रहूँगी चली जाऊंगी।रानी बोली एक की सजा दूसरे को क्यों माँ?मुझे अपनी गलती सुधारने का मौका दो,ताकि जिसने ये पाप किया हैं उसे सजा मिले मां!पर तुम हमें क्षमा करो मां।ठीक है पुत्री!मेरे प्रसाद को मेरे पुत्र को खिला दो,कारण चार दिन से मेरा पुत्र भूखा है और मैं भी उपवास में हूँ।रानी पड़प उठी,अरे मां!ये क्या आप चार दिन से उपवास में हैं!हां!अगर पुत्र भुखा हो तो क्या मां खा सकती है।इसीलिए मै भी भुखी हूँ।फिर अचानक रानी की नींद टूट गई।इधर मां तारा अपने पुत्र बामा को मनाने लगी।बामा पीड़ा से कराह रहे थे।मां वामाचरण के पास खुद प्रसाद लेकर आई और वामा से कहने लगी,ले बेटा प्रसाद खा ले,कितने दिनों से तुमने कुछ खाया नहीं,देख कैसी हालत हो गई है,एकदम सुख गया हैं।मां की बात सुन वामा बोले नहीं नहीं मैं नहीं खाऊंगा और मै कभी तुम्हारे मंदिर में नहीं जाऊंगा।खुद मंदिर में बुलाकर मार खिलाती हो।नहीं बेटे!उनलोगों ने तुम्हें नहीं मारा है,मुझे मारा है,ये देखो मेरे बदन में भी दाग है।मुझे भी दर्द हो रहा है,मैं भी तुम्हारी तरह भूखी हूँ।इतना सुनते वामा बोले,माँ मेरी तु भी भुखी हैं क्यों नहीं खाया तो मां बोली बेटा तुने नहीं खाया तो मैं कैसे खा सकती हूँ?इधर रानी अपनी प्रजा के साथ मंदिर आई।मंदिर में रानी आते ही सबसे पहले उस पुजारी को निकाल कर नया पुजारी रखा,फिर वामा को खोजने लगी।ढूँढते हुए रानी श्मशान में आई ,वहाँ वामा को देख क्षमायाचना करने लगी तथा सपने की सारी बात बताई।उसी समय रानी के आदेश पर मंदिर की सारी जिम्मेवारी वामाचरण को सौंप दी और बोली पहले वामा बाबा को भोग लगेगा फिर मां को भोग लगेगा तथा मंदिर की पूजा वामा अपने हिसाब से करेगें।इसके बाद क्या मजाल,कौन क्या कहे,बामा जाकर मंदिर के आसन पर बैंठ गये।कोई आचार,विचार नहीं मां को देख वामा मुस्कुरा दिये,तुम तो अन्तर्यामी हो,तुम क्या खाओगी पहले मैं ही खाऊंगा,और खुद खाने लगे,ये देख वहाँ उपस्थित लोग आश्चर्य होकर देखने लगे।खाना खाने के बाद वामा ने शुरू किया मां का पूजन करना।दोनों हाथों में जवा फूल की माला लेकर जितनी भी इच्छा हुई उतनी गाली देना शुरू किया मां को और वामा के आँखों से आँसू भी गिरते रहे ।फूल से उस आँसू को पोछते हुए अन्जली देने के उद्देश्य से देवी की मूर्ति पर फूल फेंक दिया।मंत्र के नाम पर उन्होनें सिर्फ ये कहा ये लो फूल,ये लो बेलपत्र,सारे भक्तजन लोग देखे कि वामा के द्वारा फेंके फूल एक एक कर सब आपस में मिलकर माला का रूप ले लिया फिर माँ के गले मे पहुँच गई।ऐसी प्रेममयी है तारा माँ और उनके भक्त।बामा एक बार काशी से पैदल ही तारा पीठ चल पड़े,कारण पैसा भी नहीं था।उनके सामने जो रास्ता मिला उसी रास्ते से आगे बढते रहे,दिन भर चलते जहां रात होती वही किसी पेड़ के निचे सो जाते फिर प्रातःचलने लगते।लगातार कई दिन भूखे प्यासे चलते रहे,बाद में थक गये थे तथा कमजोरी के कारण चल भी नही पा रहे थे।थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गये फिर एक यात्री से पूछा ये कौन सी जगह हैं भाई,पर इन्हें पागल समझ लोग मुँह फेर चले जाते,थके तो थे ही फिर हार कर बोलने लगे हे माँ तारा ये कौन सी जगह ले आई हो माँ।अचानक एक आवाज आई तुम कहाँ जाओगे।नारी की आवाज सुन रास्ते के दुसरी तरफ देखा काले कपड़े पहनी हुई एक कुमारी कन्या खड़ी है,काफी सुन्दर घने बालों वाली कन्या थी तथा पाँवो मे आलता लगा हुआं था।वामा आवाक होकर देखते ही रहे और आंखो में आंसू बहने लगे।काली मां का एक कन्या के रूप में वामा के नजदीक आकर पूछने लगी तुम रो क्यों रहे हो?लगता हैं रास्ता भूल गये हो?हां माँ!मैं रास्ता भूल गया हूँ।श्यामांगी अपने आंचल से वामाचरण के आँसू पोंछने लगी फिर प्यार से बोली रोते क्यों हो?कहां जाओगे तुम?मुझे नहीं पता मां!महामाया मुझे कहां ले आई हैं,लेकिन मैं तो जाऊंगा मां।श्यामांगी मन्द मन्द हंसने लगी,लगता हैं तुम्हें काफी भूख लगी है,रूको मै माँ के मंदिर से प्रसाद लेकर आती हूँ।ये कहकर ही श्यामांगी दौड़कर जंगल की तरफ गई और कुछ देर बाद एक पत्ते में प्रसाद ले आई।ये देखकर वामा मन ही मन हंस रहे थे,सोचे ये क्या कर रही है माँ,मुझे संसार की मोह से दूर कर खूद बेटे के मोह में आ रही हैं।ये लो खाओ,मां बोली।वामा प्रसाद लेकर श्यामांगी का मुंह देखते देखते प्रसाद खाते रहे।खाने के बाद काफी तृप्ति मिली वामाचरण को तब वे मां से बोले,मैं "तारा पीठ" किस रास्ते से जाऊंगा मां?तुम तारापीठ जाओगे?वो तो बहुत दूर है,फिर भी इस जंगल के अन्दर से एक रास्ता जाता है,क्या तुम जा सकोगे?अगर आप हमें रास्ता दिखायेंगी तो मैं क्यो नहीं जा सकुंगा माँ! ऐसा क्या कभी हो सकता है?और क्यों तरसा रही हो मां,कैसे जाना है,किस रास्ते जाना है,मेरा हाथ पकड़ा के ले चलो मां,जिस रास्ते जाना हैं।मां अपने बेटे की बात सुन मुस्कुरा कर बोली,तो चलो जल्दी,फिर वामा भी हंस कर उस कन्या का हाथ पकड़ चल दिए,क्षण भर में वामा तारापीठ में थे,कन्या अदृश्य हो गई।
-:रुप:-
तंत्र में कहा गया है "ततःशून्या परारूपा श्रीमहासुन्दरी कला।सुन्दरी राजराजेशी महाब्रह्माण्डनायिका॥महाशून्या ततस्तारा तद्वैगुण्यक्रमेण च।मुक्तौ संयोज्य सर्वं तं महासुन्दर्यनन्ततः॥" श्रीमहासुन्दरी को कला और श्रीतारा को शून्यरूप निर्देश किया है।अब द्रष्टव्य यह है कि शून्यरूप में ही सब देवता और देवी शक्तियां हैं।इस कारण अंतिम शून्य साधना करने के बाद शून्यरूप निर्विकार ब्रह्मरूप में लीन होकर मुक्ति साधन किया जाता है।जब कही आसरा नहीं मिलता तो लोग तारा माँ के शरण में जाते है,माँ सभी को अभयदान भक्ति प्रदान करती ही हैं।काली का एक रूप है तारा माँ,थोड़ा सा फर्क हैं।वशिष्ट तारा माँ की सिद्धि वेदोक्त विधि से करने लगे।पर यह संभव ही नहीं है कारण वेद के द्वारा तारा की साधना नहीं हो सकती।कारण ये शिव विद्या है।वेद तो नंदीश्वर के द्वारा शापित है,कारण दक्ष प्रजापति के यज्ञ में वेद अनुयायी ब्राह्मणों ने शिव निन्दा की तो कुपित होकर नंदी ने ब्राह्मणों को शापित कर दिया था।तारा के शिव अक्षोभ्य है,इन्हे तारा अपने मस्तक पर बिठाये रखती है।अक्षोभ्य यानि क्षोभ से मुक्त पूर्ण तृप्त कारण तारा प्रेयसी है,पूर्ण प्रेममयी सब कुछ प्रदान करने वाली सबसे बचाकर शिव को,पुत्र को,भक्त को अपने से अलग न करना तथा बहुत गलतियों को नजर अंदाज कर देना यही तारा रहस्य है।तारा कई रूपों में जानी जाती है।बौध हो या जैन धर्म सभी को तारा ही अपने लक्ष्य तक पहुँचाई है।जन्म जन्म के हमारे बंधन तारा अपने कैंची से काट देती है,यानि तार देती है।तारा धन देती है ,विद्या भी देती है,तथा सब कुछ प्रदान करती है यानि मूर्ख को भी ज्ञानी बना देती है।इनका एक रूप है नीलसरस्वती का ये कवित्व शक्ति प्रदात्री हैं।जो निश्चल हृद्वय के है,कपट से दूर वो पूर्ण प्रेम करना जानते हो उनके लिए अराध्य हैं तारा माँ।तारा में सीताराम छुपे हैं।
-:उपदेश:-
वामाक्षेपा के भक्तों के लिए कुछ प्यारे उपदेश "भगवान को देखने के लिए कैसी दृष्टि चाहिए,वैसी दृष्टि मिल सकती हैं साधना के द्वारा,विश्वास के द्वारा,फिर हम भगवान को देख सकते है।भगवान न पूरूष है न स्त्री,उनकी व्याख्या ही नहीं की जा सकती हैं।वो स्त्री और पूरूष का मिश्रण रूप है,इससे अधिक न समझो नहीं तो माथा खराब हो जायेगा।" भक्तों के आग्रह पर फिर बोले "परमब्रह्म निराकार है,ब्रह्म की आत्मा है आदिशक्ति सर्वभूता मातृरूप इसलिये शक्ति का नारी रूप है।वो नारी रूप में शक्ति प्रतीक बनकर घर घर विराजती है।ब्रह्म और शक्ति एक है ये ही दोनों मिलकर भगवान कहलाते है,इन दोनो का संबंध अटूट है।बच्चे सबसे पहले अपनी मां को पहचानते है,फिर मां ही पिता की पहचान करवाती है।इसलिये सभी को मां की उपासना करनी चाहिए।आदिशक्ति काली है,उनकी तीन सृष्टि हैं ब्रह्मा,विष्णु,महेश।असल में संसार एक भोग करने की जगह है,हर इंसान एक ही बार में त्यागी हो जाये यह असम्भव है।पहले भोग फिर त्याग।भोग नहीं करने से त्याग की शुद्धता नहीं मिलती हैं।त्याग ही निवृत्ति मार्ग का दरवाजा है,भोग के रास्ते से ही मन को तैयार करना पड़ता है।बहुत सा दिव्य वचन वामाक्षेपा जी ने दिया जो मनन करने लायक है।जीवन में निरसता क्यों?अगर परमसता को ही पाना है तो पहले बड़े उमंग से कर्म करना चाहिए।जीवन के आधार के लिए एक सच्चा मुकाम बनाकर कोई भी कार्य किया जा सकता है,तारा से सच्चे दिल से मांगने पर वह सब कुछ प्रदान कर देती हैं।बहुत सी बातें है,परन्तु मां तारा प्रेम की विरह वेदना से ही सिद्ध हो जाती है।जो भी भक्त को चाहिए वह प्रदान कर देती है,यह मां ही महामाया एवं ब्रह्म शक्ति है।दिल से तारा तारा पुकारने पर ही ये भक्त के सारे संकट हर लेती है।तारा माँ अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखो,तुम्हारी जय हो माँ।
-:तारापीठ स्थल:-
झारखंड के बैधनाथ धाम के बगल में दुमका जिला से सटे पश्चिम बंगाल के वीरभूमी में स्थित द्वारका नदी के पास महाश्मशान में स्थित है तारा पीठ।पूर्वी रेलवे के रामपुर हाल्ट स्टेशन से चार मील दूरी पर स्थित है तारा पीठ।रामकृष्ण के समकालीन ही वामा क्षेपा, तारा पीठ के सिद्ध अघोरी परम भक्त थे।तारा पीठ ५२ पीठो के अन्तर्गत माना गया है।तारा पीठ तीन हैं।सती देवी के तीन नेत्रों की मणि बिन्दु बतीस योजन के अन्दर त्रिकोणाकार,तीन विभिन्न स्थानों पर गिरे थे।मिथिला के पूर्व दक्षिणी कोने में,भागीरथी के उत्तर दिशा में,त्रियुगी नदी के पूर्व दिशा में "सती" देवी के बाँये नेत्र की मणि गिरी,तो यह स्थान "नील सरस्वती" तारा पीठ के नाम से प्रसिद्ध हैं।बगुड़ा जिले के अन्तर्गत "करतोया नदी के पश्चिम में दाँईं मणि गिरी,तो यह स्थान "एक जटा तारा" और भवानी तारा पीठ के नाम से विख्यात हैं।बैधनाथ धाम के पूर्व दिशा में उत्तर वाहिनी,द्वारका नदी के पूर्वी तट पर महाश्मशान में श्वेत शिमूल के वृक्ष के मूल स्थान में "सती देवी" के ऊर्धव यानी तीसरे नेत्र का तारा गिरा,तो यही स्थान "शिलामयी चण्डी भगवती उग्र तारा" के नाम से प्रसिद्ध हैं,यही तारा पीठ के भक्त थे वामाक्षेपा।