"ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥"

Friday, October 14, 2011

"दर्द का पर्वत".....(मेरी एकमात्र कविता)

"मेरे द्वारा लिखी गयी एकमात्र कविता की कहानी....."

अपने जीवन में बचपन से दिव्य घटनाओं के साथ मै बड़ा हुआ।दस वर्ष की उम्र से ही हनुमान जी की साधना करता आया हूँ और जीवन में बहुत सारी साधनाओं द्वारा बहुत सी अनूभुतियाँ होती रही है।माता पिता का सुख अल्पावधि के लिये मिला वही ज्योतिष ज्ञान मुझे एक दिव्य अलौकिक साधक श्री दुर्गा प्रसाद जी से प्राप्त हुआ।एक दिव्य सिद्ध अघोर गुरु सीताराम जी के सम्पर्क में १० वर्षो तक रहा और उन्हीं से दीक्षा भी प्राप्त हुई साथ ही काली और दसमहाविधाओं की भी दीक्षा मिली।दिन के सोलह घंटे मंत्र जाप गुरु सान्निध्य में किया और इसी अंतराल कई दिव्य दर्शन से जीवन की समझ आयी।
एक बार गुरु जी की नाराजगी के क्षणों में मैने उनके लिए कवितारुप जो पीड़ा शब्दों में व्यक्त की।वही पूरी जीवन में मेरी एकमात्र कविता है।इस कविता को पढ़ गुरुदेव ने अपने जीवन काल तक हर दम मुझपर अपने स्नेह का आकाश फैलाये रखा और अंत में समाधि के बाद अपनी सारी सिद्धियाँ मुझे प्रदान की।उनकी समाधि के बाद दिव्य दर्शन और आदेश से मुझे श्री पीताम्बरा पीठ,शिवरुप सद्गुरु श्री स्वामी जी की कृपा प्राप्त हुई और दीक्षा मिली।मंत्र,अनुष्ठान तथा ज्योतिष,तंत्र से लोगों की मदद कर शांति मिलती है।वही धीरे धीरे श्री बगलामुखी साधना से परिचित हो रहा हूँ।

दर्द का पर्वत

मै हूँ दर्दों का पर्वत,मेरी शिला पर कई बैठे है।
कई आते है,कई जाते है,कई आसन लगाये बैठे है।

जब छोटा था तो कोई उठाकर,
इधर से उधर फेंक देता था।

जब समझ आया तो,
साथी एक सामने खड़ा था।
इस बीच मै बड़ा होता गया,
पर दर्दों के साया में पलता रहा।

अब तो दर्द का मै पर्वत,मेरे शिला पर कई बैठे है।

जिसे मैने प्रेम किया,उसी ने मुझपर प्रहार किया।

मै आखिरी दम तक,न समझ के हारता रहा।
इस हारने की आदत से मै,परेशान था कि एक दिन।

वो आये,ये आये और आप आये,खुशियाँ आयी,
पर मुझे यह भी रास न आया,
कारण मेरे उपर कई बैठे थे।

फिर मेरी शिला पर एक खुशियाँ आयी,
पर मै दीन हीन क्या जानूँ,
कि वो खुशी क्या है?

तभी गरजने की आवाज के साथ,
घोर नाद के साथ,
मुझे तोड़ फोड़ कंकड़ों में कर दिया गया।

तब मैने जाना कि मै था दर्दों का पर्वत,
अब कंकड़ हो गया हूँ।

अब कोई मेरे पास न आकर बैठेगा,
कारण मै पर्वत नहीं,
कंकरीट हूँ।

मेरे दर्दों का पर्वत फूट पड़ा तो,
मै अनगिनत खंड खंड,
दर्दों का कंकड़,
माँ की इच्छा जाना।

अब न तपस्वी,न साधक,
न कोई ज्ञानी आयेगा,
न मै बैठने का साधन हूँ,
इसलिए मै सागर में अपने,
अनेक दर्दों के साथ विलीन हो रहा हूँ।

कोई मुझे खोजेगा,
तो भी नहीं मिलूँगा।

अगर कोई प्रेमी,साथी,गुरु,
अगस्तय ॠषि जैसा आयेगा,
सागर को पियेगा,
तब मुझे वापस ले जाकर,
कंकड़ से रत्न का निर्माण करेगा।

तब मै जगमगाऊँगा,
और मेरे उपर लोग बैठेंगे नहीं,
पर मै सभी के गले,सिर,हाथों की शोभा बनूँगा।

माँ के चरणों,
गले का हार बनूँगा।

तब मै दर्दों का पर्वत नहीं,
एक शांति रत्न कहलाउँगा।

अगर ऐसा न हुआ तो,
अगला जन्म मै लूँगा,
और प्रयास करूँगा.................।

7 comments:

Anamikaghatak said...

dard se bhari rochak atmabayan...bahut sundar

SANDEEP PANWAR said...

दीपावली की शुभकामनाएँ

MK Tiwari said...

आपकी कविता दर्द का पर्वत अति दिल और आत्मा कों छूने वाली कविता हैं.
मेरा निवेदन हैं कि आपको कविता लेखन जारी रखना चाहियें. इससे बहुतों कों प्रेरणा और संभल मिलता हैं.
आशा के साथ..

Tamasha-E-Zindagi said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति विचारों की | आभार

कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

Bahut khub acchi kavita hai

Nikhil Kumar said...

bahut hi sundar